Tuesday, July 26, 2011

गाँधी के सत्य के प्रयोग और नेहरू खानदान


इन्दिरा गाँधी अकेलेपन और अवसाद का शिकार थीं। शांति निकेतन में पढते वक्त ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें अनुचित व्यवहार के लिये निकाल बाहर किया था... अब आप खुद ही सोचिये... एक तन्हा जवान लडकी जिसके पिता राजनीति में पूरी तरह से व्यस्त और माँ लगभग मृत्यु शैया पर पडी़ हुई हों... थोडी सी सहानुभूति मात्र से क्यों ना पिघलेगी, और विपरीत लिंग की ओर क्यों ना आकर्षित होगी ? इसी बात का फ़ायदा फ़िरोज खान ने उठाया और इन्दिरा को बहला-फ़ुसलाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाकर लन्दन की एक मस्जिद में उससे शादी रचा ली (नाम रखा "मैमूना बेगम")।
         नेहरू को पता चला तो वे बहुत लाल-पीले हुए, लेकिन अब क्या किया जा सकता था...जब यह खबर मोहनदास करमचन्द गाँधी को मिली तो उन्होंने ताबडतोड नेहरू को बुलाकर समझाया, राजनैतिक छवि की खातिर फ़िरोज को मनाया कि वह अपना नाम गाँधी रख ले.. यह एक आसान काम था कि एक शपथ पत्र के जरिये, बजाय धर्म बदलने के सिर्फ़ नाम बदला जाये... तो फ़िरोज खान (घांदी) बन गये फ़िरोज गाँधी । और विडम्बना यह है कि सत्य-सत्य का जाप करने वाले और "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" लिखने वाले गाँधी ने इस बात का उल्लेख आज तक कहीं नहीं किया, और वे महात्मा भी कहलाये। वाह रे गाँधी और उनका गाँधित्व।
खैर... उन दोनों (फ़िरोज और इन्दिरा) को भारत बुलाकर जनता के सामने दिखावे के लिये एक बार पुनः वैदिक रीति से उनका विवाह करवाया गया, ताकि उनके खानदान की तथाकथित ऊँची नाक (?) का भ्रम बना रहे। इस बारे में नेहरू के सेक्रेटरी एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक "रेमेनिसेन्सेस ऑफ़ थे नेहरू एज" (पृष्ट ९४ पैरा २) (अब भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित) में लिखते हैं कि "पता नहीं क्यों नेहरू ने सन १९४२ में एक अन्तर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाह को वैदिक रीतिरिवाजों से किये जाने को अनुमति दी, जबकि उस समय यह अवैधानिक था, कानूनी रूप से उसे "सिविल मैरिज" होना चाहिये था"


Saturday, July 9, 2011

सुखदेव का पत्र गाँधी के नाम

शहीद सुखदेव ने, मार्च 1931 में घृणित गाँधी-इर्विन समझौते के बाद, अपनी फ़ाँसी से तीन दिन पहले, एक खत लिखकर गाँधी से कुछ पूछा था, इस खत का जबाब गाँधी ने उन्हे और इस देश को कभी नही दिया । आखिर कब तक हम सब सोते रहेंगे ? अब नयी पीढी फ़िर से पूछेगी वो सारे प्रश्न जिन्हे गाँधी, नेहरू और उनकी अंग्रेज सरकार ने दबा दिया, कभी अपने जुल्मों से, कभी प्रेस पर पाबंदी लगाकर और कभी गाँधी के उपदेशों से भरमाकर ।
उसी पत्र के कुछ अंश प्रस्तुत हैं …
“समझौता करके आपने अपना आन्दोलन रोक लिया है, इसके परिणामस्वरूप सत्याग्रह के सारे कैदी रिहा हो गये हैं । पर क्रान्तिकारी बन्दियों के बारे मे आपका क्या कहना है ? 1915 के गदर पार्टी के कैदी आज भी जेलों में पडे सड रहें हैं, जबकि उनकी सजायें पूरी हो चुकी हैं । मार्शल ला के सैकडों कैदी आज भी जीवित होते कब्रों में दफ़नाये हुये हैं । इसी तरह बबर अकाली लहर के दर्जनों कैदी जेल की यातनायें सहन कर रहे हैं । आधी दर्जन से ज्यादा केस – लाहौर, दिल्ली, चटगांव, बम्बई कलकत्ता आदि स्थानों पर चल रहे हैं, अनेक क्रान्तिकारी शामिल हैं जिसमे औरतें भी हैं, कई कैदी अपनी मौत का इन्तजार कर रहे हैं । इन सबके बारे में आपको क्या कहना है ? …  ” – पंजाबी पत्रिका हेम ज्योति, मार्च 1971
शहीद सुखदेव ने स्पष्ट शब्दों मे गाँधी पर यह आरोप लगाया था –“आप क्रान्तिकारी आन्दोलन को कुचलने में नौकरशाही का साथ दे रहे हैं ।”
शहीद का यह आरोप कितना सच है और कितना झूठ ये आप सभी अच्छी तरह जान चुके हैं। गाँधी की इस तरह की गैरजिम्मेदाराना हरकत कहा तक न्यायसंगत है ? क्या जेलों मे पडे अन्य कैदी उनके देशवासी नही थे, क्या उनका उद्देश्य देश को आजादी दिलाना नही था, क्या उन्होने देश के लिये कुछ नही किया था, देश के लिये अब उनका कोइ महत्व नही रह गया था ? परन्तु गाँधी को तो इस बारे में कुछ सोचना ही नही था, उसे क्रान्तिकारियों के बढते प्रभाव का डर जो सता रहा था, उसे अपने चहेते लालची नेहरू को देश का कर्णधार जो बनाना था ।
जय हिन्द, जय स्वदेश ।

Tuesday, July 5, 2011

नेहरु की दृष्टि में गाँधी





        गांधी के सर्वाधिक प्रिय खण्डित भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा - " ओह दैट आफुल ओल्ड हिपोक्रेट " Oh, that awful old hypocrite - ओह ! वह ( गांधी ) भयंकर ढोंगी बुड्ढा यह पढकर आप चकित होगे कि क्या यह कथन सत्य है - गांधी जी के अनन्य अनुयायी दाहिना हाथ माने जाने वाले जवाहर लाल नेहरू ने ऐसा कहा होगा , कदापि नहीं किन्तु यह मध्याह्न के सूर्य की भाँति देदीप्यमान सत्य है - नेहरू ने ऐसा ही कहा था प्रसंग लीजिये - सन 1955 में कनाडा के प्रधानमंत्री लेस्टर पीयरसन भारत आये थे भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ उनकी भेंट हुई थी भेंट की चर्चा उन्होंने अपनी पुस्तक " इन्टरनेशनल हेयर्स " में की है
              "सन 1955 में दिल्ली यात्रा के दौरान मुझे नेहरू को ठीक - ठीक समझने का अवसर मिला था मुझे वह रात याद है , जब गार्डन पार्टी में हम दोनों साथ बैठे थे , रात के सात बज रहे थे और चाँदनी छिटकी हुई थी उस पार्टी में नाच गाने का कार्यक्रम था नाच शुरू होने से पहले नृत्यकार दौडकर आये और उन्होंने नेहरू के पाँव छुए फिर हम बाते करने लगे उन्होंने गांधी के बारे में चर्चा की , उसे सुनकर मैं स्तब्ध हो गया उन्होंने बताया कि गांधी कैसे कुशल एक्टर थे ? उन्होंने अंग्रेजों को अपने व्यवहार में कैसी चालाकी दिखाई ? अपने इर्द - गिर्द ऐसा घेरा बुना , जो अंग्रेजों को अपील करे गांधी के बारे में मेरे सवाल के जबाब में उन्होंने कहा - Oh, that awful old hypocrite नेहरू के कथन का अभिप्राय हुआ - " ओह ! वह भयंकर ढोंगी बुड्ढा " ( ग्रन्थ विकास , 37 - राजापार्क , आदर्शनगर , जयपुर द्वारा प्रकाशित सूर्यनारायण चौधरी की ' राजनीति के अधखुले गवाक्ष ' पुस्तक से उदधृत अंश ) "
 
        नेहरू द्वारा गांधी के प्रति व्यक्त इस कथन से आप क्या समझते है - नेहरू ने गांधी को बहुत निकट एवं गहराई से देखा था वह भी उनके विरोधी होकर नहीं अपितु कट्टर अनुयायी होकर फिर क्या कारण रहा कि वे गांधी जी के बारे में अपने उन दमित निश्कर्षो को स्वार्थवश या जनभयवश अपने देशवासियों के सामने प्रकट कर सके , एक विदेशी प्रधानमंत्री के सामने प्रकट कर दिया ?

Sunday, July 3, 2011

नाथूराम गोडसे का आखिरी पत्र : Nathuram Godse's last letter

प्रिय बन्धो चि. दत्तात्रय वि. गोडसे
              मेरे बीमा के रूपिया आ जायेंगे तो उस रूपिया का विनियोग अपने परिवार के लिए करना । रूपिया 2000 आपके पत्नी के नाम पर , रूपिया 3000 चि. गोपाल की धर्मपत्नी के नाम पर और रूपिया 2000 आपके नाम पर । इस तरह से बीमा के कागजों पर मैंने रूपिया मेरी मृत्यु के बाद मिलने के लिए लिखा है ।
              मेरी उत्तरक्रिया करने का अधिकार अगर आपकों मिलेगा तो आप अपनी इच्छा से किसी तरह से भी उस कार्य को सम्पन्न करना । लेकिन मेरी एक ही विशेष इच्छा यही लिखता हूँ ।
              अपने भारतवर्ष की सीमा रेखा सिंधु नदी है जिसके किनारों पर वेदों की रचना प्राचीन द्रष्टाओं ने की है ।
वह सिंधुनदी जिस शुभ दिन में फिर भारतवर्ष के ध्वज की छाया में स्वच्छंदता से बहती रहेगी उन दिनों में मेरी अस्थि या रक्षा का कुछ छोटा सा हिस्सा उस सिंधु नदी में बहा दिया जाएँ । मेरी यह इच्छा सत्यसृष्टि में आने के लिए शायद ओर भी एक दो पीढियों ( Generations ) का समय लग जाय तो भी चिन्ता नहीं । उस दिन तक वह अवशेष वैसे ही रखो । और आपके जीवन में वह शुभ दिन न आया तो आपके वारिशों को ये मेरी अन्तिम इच्छा बतलाते जाना । अगर मेरा न्यायालीन वक्तव्य को सरकार कभी बन्धमुक्त करेगी तो उसके प्रकाशन का अधिकार भी मैं आपको दे रहा हूँ ।
              मैंने 101 रूपिया आपकों आज दिये है जो आप सौराष्ट्र सोमनाथ मन्दिर पुनरोद्धार हो रहा है उसके कलश के कार्य के लिए भेज देना ।
              वास्तव में मेरे जीवन का अन्त उसी समय हो गया था जब मैंने गांधी पर गोली चलायी थी । उसके पश्चात मानो मैं समाधि में हूँ और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ । मैं मानता हूँ कि गांधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाएँ , जिसके लिए मैं उनकी सेवा के प्रति और उनके प्रति नतमस्तक हूँ , किन्तु देश के इस सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि का विभाजन करने का अधिकार नहीं था ।
              मैं किसी प्रकार की दया नहीं चाहता और नहीं चाहता हूँ कि मेरी ओर से कोई दया की याचना करें । अपने देश के प्रति भक्ति-भाव रखना अगर पाप है तो मैं स्वीकार करता हूँ कि वह पाप मैंने किया है । अगर वह पुण्य है तो उससे जनित पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है । मुझे विश्वास है की मनुष्यों के द्वारा स्थापित न्यायालय से ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमें मेरे कार्य को अपराध नहीं समझा जायेगा । मैंने देश और जाति की भलाई के लिए यह कार्य किया है । मैंने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियों के कारण हिन्दुओं पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए । मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य ' नीति की दृष्टि ' से पूर्णतया उचित है । मुझे इस बात में लेशमात्र भी सन्देह नहीं की भविष्य में किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेंगे तो वे मेरे कार्य को उचित ठहराएंगे ।
                 कुरूक्षेत्र और पानीपत की पावन भूमि से चलकर आने वाली हवा में अन्तिम श्वास लेता हूँ । पंजाब गुरू गोविंद की कर्मभूमि है । भगत सिंह , राजगुरू और सुखदेव यहाँ बलिदान हुए । लाला हरदयाल तथा भाई परमानंद इन त्यागमूर्तियों को इसी प्रांत ने जन्म दिया ।
                 उसी पंजाब की पवित्र भूमि पर मैं अपना शरीर रखता हूँ । मुझे इस बात का संतोष है । खण्डित भारत का अखण्ड भारत होगा उसी दिन खण्डित पंजाब का भी पहले जैसा पूर्ण पंजाब होगा । यह शीघ्र हो यही अंतिम इच्छा !

आपका
नाथूराम वि. गोडसे







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