Sunday, May 29, 2011

ग़ाँधी की महान प्रतिज्ञायें …


1918 में एक अस्थाई सन्धि से युद्ध बन्द हो गया । बर्फ़ यानी कि पानी के उपचार से गाँधी की तबियत सम्भली । लेकिन कमजोरी बहुत थी । गाँधी को बम्बई लाया गया । डाक्टर ने जाँच पडताल के बाद कहा –
“अगर आप दूध और इंजेक्शन नहीं लेंगे तो मैं आपके शरीर को नहीं भर सकता ।”
      “इंजेक्शन दीजिए, लेकिन दूध ना लूँगा ।” गाँधी ने उत्तर दिया ।
      “दूध के बारे मे आपकी क्या प्रतिज्ञा है ?”   
      “मैंने दूध का त्याग कर दिया है । वह मनुष्य की खुराक नहीं है यह तो मैं सदा मानता रहा हूँ ।”
डाक्टर ने चट कहा –
“आप बकरी का दूध लें तो भी मेरा काम हो जायेगा ।”
गाँधी लिखता है कि –
“मैं हारा । सत्याग्रह की लडाई के मोह ने मुझमें जीने का लोभ पैदा कर दिया और मैंने प्रतिज्ञा के अक्षर के पालन से संतोष मात्र कर उसकी आत्मा का हनन किया । …” (पृ 548)
गाँधी ने दूध त्यागने की प्रतिज्ञा दक्षिण अफ़्रीका में ली थी और अपनी ‘आत्मकथा’ के उसी प्रकरण में लिखा था –
“व्रत का हेतु तो दूध मात्र का त्याग था । पर व्रत लेते समय मेरे सामने गोमाता और भैंस मात्र ही थी । इससे और जीने की आशा से मैंने मन को ज्यों-त्यों फ़ुसला लिया । मेरे व्रत की आत्मा का हनन हो गया, यह बात मैंने बकरी माता का दूध लेते समय भी जान ली ।”(पृ 335)
बकरी का दूध पीने से गाँधी चंगा तो हो गया, लेकिन प्रतिज्ञाभंग करने की आत्मपीडा उसे जीवन भर सालती रही । अपने सत्य और अहिंसा की व्याख्या के बाद लिखा है –
“सत्य के पालन का अर्थ है, लिये हुए व्रत के शरीर और आत्मा की रक्षा; शब्दार्थ और भावार्थ दोनों का पालन । यहाँ मैंने आत्मा का, भावार्थ का हनन किया, यह मुझे रोज चुभता है ।”
गाँधी ने इस तरह की अनेक प्रतिज्ञाएँ की अपने महात्म्य को बढाने के लिये और फ़िर उन्हे जब चाहा तब तोड दिया किसी स्वार्थ की पूर्ति के लिये । गाँधी में अपना सत्य झेलने की यह हिम्मत कभी पैदा नही हुई । उसकी ये प्रतिज्ञाएँ महज एक ढोंग थीं । वह उन्हें निहित स्वार्थों की सेवा के लिये रखता था और निहित स्वार्थों की सेवा ही के लिये तोडता भी रहता था ।

Saturday, May 28, 2011

ग़ाँधी का अंग्रेज साम्राज्य प्रेम


      1917 में ब्रिटेन की हालत बडी नाजुक थी । वह अमरीका को युद्ध में लाने में सफ़ल नहीं हो पाया था । हिन्दुस्तान से और अधिक सहायता भिजवाने के लिये वायसराय ने दिल्ली में युद्ध-परिषद बुलाने की सोची । गाँधी परिषद मे शरीक हुया जबकि उस समय देश के सर्वाधिक प्रभाबशाली नेता लोकमान्य तिलक, एनीबेसेंट और अली भाइयों (मुहम्मद अली, शौकत अली) को निमन्त्रित नही किया गया था ।
      परिषद मे गाँधी ने अपना भाषण हिन्दी मे दिया और अंग्रेजी मे एक वाक्य बोलकर युद्ध प्रस्ताव का समर्थन किया । गाँधी ने क्या कहा, इस बात को तो भुला दिया गया लेकिन वह हिन्दी में बोला इसे बडी बहादुरी माना गया और अखबारों में इसकी बडी चर्चा हुयी ।
         गाँधी ने वायसराय को बाद में एक पत्र लिखा, जिसमें था –
“मेरे वश की बात होती तो मैं ऐसे मौके पर होमरूल वगैरा का नाम तक ना लेता बल्कि साम्राज्य के इस आडे वक्त में सारे शक्तिशाली हिन्दुस्तानियों को उसकी रक्षा में चुपचाप बलिदान हो जाने को प्रेरित करता … ”
      इसके बाद प्रान्तीय राज्य सरकारों ने प्रान्तीय युद्ध परिषदें नियोजित करना शुरू कीं । बम्बई की सरकार ने केन्द्र की हिदायत पर गाँधी के अलावा तिलक और दूसरे राजनीतिज्ञों को भी निमन्त्रित किया गया ।
      दूसरे दिन बम्बई टाउनहाल मे में अधिबेशन शुरू हुआ । गवर्नर ने नियमपूर्वक कल्याणकारी व्रिटिश साम्राज्य का गुणगान किया । इसके बाद सहायता सम्बन्धी मुख्य प्रस्ताव सामने आया । तिलक अपनी जगह चुपचाप खडे हुए और उन्होंने गवर्नर से एक संशोधन पेश करने की इजाजत चाही जिसका आशय यह था कि सहायता तभी दी जा सकती है जब सरकार देशवाशियों को स्वशासन का अधिकार दे दे ।
      गवर्नर ने संशोधन पेश करने की इजाजत नहीं दी ।
      तिलक और देश के सभी बडे नेता बडे स्वाभिमान के साथ परिषद का बायकाट करके बाहर निकल आये ।
      ग़ाँधी मंच के एक कोने पर चुपचाप और स्थिर बैठा रहा । और गाँधी ने अपने इस कयरतापूर्ण कृत्य का अपनी आत्मकथा में कहीं उल्लेख तक नहीं किया ।

      अब रंगरूट भर्ती का काम शुरू हुआ । गाँधी ने एक महान ब्रिटिश राज्यभक्त की तरह यह काम बडे मनोयोग से शुरू किया । गाँधी ने खुद लिखा है –
      “मेरी दूसरी जिम्मेदारी रंगरूट भर्ती करने की थी ।”
अब उसने अपने अहिंषा के शिद्धान्त को ताक पर रखकर तर्क वितर्क करके लोगो को शस्त्र धारण करने का उपदेश देना शुरु किया । उसने यह दलील दी कि –
“ब्रिटिश साम्राज्य हमें शत्रुओं के आक्रमण से बचाने का प्रयत्न करता है तो ऐसे नाजुक समय में हमारा भी कर्तव्य होना चाहिये कि साम्राज्य की रक्षा के लिये अपने रक्त का अंतिम बिन्दु भी बहाने से संकोच ना करें ।”(गाँधीजी पृ 40)
सूरत मे उसने तिलक के विचारों से असहमत होकर, अंग्रेजो की सहायता के पक्ष मे एक भाषण दिया । उस भाषण की जो रिपोर्ट एक अखबार में छ्पी, गाँधी ने एक पत्र उसके बारे मे लिखा था और शिकायत की थी कि –
“आपके सम्वाददाता ने साम्राज्य को सहायता देने की बात को मेरे भाषण की मुख्य बात कह दिया … ।”
यानी अब सहायता की बात सीधे ढंग से कहने में भी शर्म आती थी; इसलिये यह सत्यवादी तथाकथित ‘महात्मा’ उसे सौ तरह से घुमा फ़िराकर कहता था ।
यह तो बस एक झलक थी गाँधी के अंग्रेज प्रेम की ।

                 From : Gandhi Benaqaab By Hansraaj Rahbar

Tuesday, May 24, 2011

ग़ाँधी के सादे और संयमित भोजन का सच


   ग़ाँधी के आहार के प्रयोग बहुत मशहूर हैं ; पर बहुत कम लोग इसका सच जानते हैं । इस सिलसिले मे इंदुलाल याज्ञिक लिखते हैं –
    “मुझे तो उनके साथ जेल में रहने से पहले ही गाँधी जी के भोजन की मात्रा पर बडा विस्मय हुआ करता था । उदाहरण के लिये मैं यह देख आश्चर्यचकित रह जाता था कि जिन दिनों वह फ़लाहार करते थे उस समय वह अनगिनत केले और ढेर-सी मूँगफ़लियाँ खा डालते थे । नाडियाड मे किसान सत्याग्रह के अवसर पर मैं उन्हें इतनी रोटियाँ और इतनी बडी मात्रा मे दाल और चावल खाते देखता था कि मैं हैरान रह जाता था ।”
         नाडियाड , गुजरात के खेडा जिले का ही एक स्थान हैं जहाँ गाँधी ने अपने तथाकथित अंपग जीत के झंडे बुलन्द किए । आपने पढा ही है हमारे इस ब्लोग मे “अहमदाबाद आन्दोलन 1918” कि कैसे अहमदाबाद के किसान अन्न के दाने दाने को तरस रहे थे और गाँधी अपने उपदेश झाड रहे थे ।
एक पेटु ब्राह्मण की बात सुनाकर गाँधी ने खुद ही कहा था –
     “पर मुझे उस नादान ब्राह्मण पर हँसने का क्या अधिकार है, क्या मैं खुद खाने के मामले मे असंयम का अपराधी नहीं हूँ ? मैं खुद इतवार के व्रत की कसर पूरी करने के लिये अगली सुबह को दुगनी मात्रा मे खाना नहीं खा लेता ?” (गाँधीजी, पृ 211)
        ग़ाँधी का जीवन कभी भी सामान्य व्यक्तियों की तरह भी संयमित नही रहा, चाहे ये उसके बचपन का समय हो जब उसने अपने मित्र के साथ माँस खाने से भी परहेज नहीं किया, चाहे उसका युवाकाल जब वो विलायत मे वकालत की पढाई करने गया और मदिरा के साथ साथ स्त्रीसंग से यथायुक्ति विरक्ति नही कर पाया और चाहे खाने के सम्बन्ध मे उसका जीवन देख लीजिए जिसमे वह कभी भी अपनी जिव्हा को अपन नियंत्रण में नही कर पाया ।
        याज्ञिक जी गाँधी के साथ यरवदा जेल मे रहे थे, उन्होंने हमारे तथाकथित महात्मा के भोजन के बारे में असंयम की दिलचस्प घटनाएँ बयान की हैं । गाँधी ने खुद लिखा है –
     “उस वक्त मेरी खुराक खासतौर से थी मूँगफ़ली गुड मिलाकर, केले इत्यादि फ़ल और दो-तीन नींबुओं का रस । मैं जानता था कि मूँगफ़ली ज्यादा खाने से नुकसान करती है । फ़िर भी वह ज्यादा खाई गईं । इससे मामूली पेचिश हो गयी ।”
        इसी असंयमित जीवन का ही परिणाम था उसका गंदा स्वास्थ्य । ज़ीवन भर वो अपनी स्वादेंद्रिय की गुलामी करता रहा और इसी कारण से देश की पूर्ण स्वतंत्रता का स्वप्न भी कभी नही देख सका ।
     लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जिन्होने सर्वप्रथम पूर्ण स्वराज्य की हुँकार की “स्वराज्य हमारा जन्मसिध्द अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगें ।”, तब इसी कमजोर गाँधी ने अंग्रेजो से डरकर हमारे गरम दल के नेताओं (लाला जी, तिलक जी और विपिनचन्द्र पाल जी) का विरोध किया ।

                 From : Gandhi Benaqaab By Hansraaj Rahbar

Sunday, May 22, 2011

गुजरात के खेडा जिले का सत्याग्रह 1918


       अहमदाबाद के मज़दूरों के सत्याग्रह की तथाकथित सफ़लता के बाद गाँधी ने गुजरात के खेडा जिले का सत्याग्रह का काम हाथ में लिया । 1917 में अधिक बर्षा की वजह से खरीफ़ की फ़सल लगभग नष्ट हो गयी । रुपया मे तीन आने की भी आशा नहीं थी । इस जिले के किसान जागरुक थे वे कलेक्टर से मिले और कमिश्नर से भी अपील की । जब कहीं सुनवाई ना हुई तब वे मामला गाँधी के पास ले गये ।
      गाँधी आया और उसने नाडियाड की अनाथशाला मे डेरा डाला । चिलचिलाती धूप मे उसके स्वंसेवकों से उसकी रिपोर्ट तैयार की । उसने रिपोर्ट देखकर अनुमान लगाया कि लोगों की माँग इतनी साफ़ और हल्की है कि उसके लिये किसी लडाई की जरूरत ही नही है । उसने सम्बन्धित अधिकारियों से प्रार्थना की । अधिकारियों ने उसकी एक ना सुनी तब उसने सत्याग्रह करने का निर्णय लिया ।
      गाँधी ने एक बार फ़िर किसानों से एक प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर लिये जिसमे लिखा था –“हम नीचे सही करने वाले प्रतिज्ञा करते हैं कि हम सरकार का लगान अदा नहीं करेगें, पर उसे वसूल करने मे सरकार से होने वाली तकलीफ़ें बर्दाश्त करेगें । हम अपनी जमीन भी जब्त हो जाने देंगे पर लगान न देगें और यदि सरकार बची हुई दूसरी किस्त की वसूली सभी स्थानों पर माफ़ कर दे तो हममें से जो दे सकते हैं वे पूरा या बचा हुया बाकी लगान अदा करने को तैयार हैं।”
      अर्थात गाँधी ने जिस तरह अहमदाबाद के मज़दूरों के हाथ पाँव बांधे थे उसी तरह यहाँ भी किसानों को अपंग कर दिया और अपने लिये भाग निकलने का चोर दरवाजा खुला रखा ।

      तथाकथित सत्याग्रह शुरू हुया । सरकारी मशीनरी भी हरकत मे आई । किसानों की चल सम्पत्ति और जानवरों की कुर्की होने लगी । सरकार का दमन बढा तो आन्दोलन और उग्रतर होता गया । गाँधी ने इस पर प्रसन्न होने की वजाय खेद व्यक्त किया और उसने आन्दोलन रोक दिया ।
रोक देने का नतीजा यह हुया कि किसानो की हिम्मत टूट गयी । आखिर वे सरकारी दमन को कब तक चुपचाप सहते ? सरकार ने उनके जानवर बेंच डाले, घरों को लूट लिया, किसानों की सारी की सारी फ़सल कुर्क कर ली गयी । इससे लोगों मे घबराहट फ़ैली । किसानों ने लगान अदा कर दिया ।
       स्वयं गाँधी के शब्दों में – “इस लडायी का अन्त विचित्र रीति से हुया । यह बात साफ़ थी कि लोग थक चुके थे और जो दृढ थे उन्हें अन्त तक बर्बाद होने में संकोच हो रहा था । मेरा झुकाव इस ओर था कि निबटारे का कोइ ऐसा राश्ता निकल आये जो सत्याग्रही को फ़बता हो, तो उसे स्वीकार करना चाहिये । उसी समय नाडियाड ताल्लुके के तहसीलदार ने कहला भेजा कि अगर स्थिति वाले पाटीदार (किसान) लगान अदा कर दें तो गरीबों का लगान मुल्तवी (माफ़) कर दिया जयेगा । इस बिषय में मैंने लिखित स्वीकृति माँगी, वह मिल गयी । तहसीलदार अपनी ही तहसील की जिम्मेदारी ले सकता था, सारे जिले की जिम्मेदारी तो कलेक्टर ही ले सकता है । अत: मैंने कलेक्टर से पूछा, उनका उत्तर आया कि तहसीलदार ने जैसा कहा है वैसा हुक्म तो निकल ही चुका है । प्रतिज्ञा मे यही खास चीज थी । इससे इस हुक्म से हमने सन्तोष माना ।”
       देखा आपने फ़िर से गाँधी जीत गया, इसी को गाँधी की बडी जीत माना गया । ये तरीका था गाँधी की जीत का । और ये था इस सरकारी हुक्म का सच जिसे गाँधी की जीत समझा गया, गाँधी के ही शब्दों में – “गरीबों को छूट देने की बात थी, पर वो शायद ही बच पाये । गरीब कौन है ये कहने का अधिकार जनता ना अजमा सकी । जनता में यह शक्ति ना रह गयी थी, इसका मुझे दुख था ।”(आत्मकथा, पृ 530)
       जिस गाँधी ने स्वयं शक्तिशाली, संगठित एवं जागरूक जनता को अपंग कर दिया, कमजोर कर दिया, बाद में उसी का रोना रोया और उसी जनता को कमजोर कहा । और वाह रे गाँधी, फ़िर अपनी इसी अपंग सफ़लता को महान बनाकर इसका गुणगान किया ।

                         From : Gandhi Benaqaab By Hansraaj Rahbar


Friday, May 20, 2011

अहमदाबाद आन्दोलन 1918


          अहमदाबाद के एक मजदूरसंघ ने गाँधी को मजदूरों की रहनुमाई के लिये बुलाया । गाँधी ने स्वं अपनी अत्मकथा मे लिखा है : “मेरी स्थिति बहुत ही नाजुक थी । मजदूरों का पक्ष मुझे मजबूत जान पडा । मिल मालिकों से मेरा सम्बन्ध प्रेम का था । उनके साथ बातचीत करके मजदूरों की माँग के बारे में पंच चुनने की प्रार्थना की । पर मालिकों ने अपने और मजदूरों के बीच में पंच के बिचवई बनने का औचित्य स्वीकार नहीं किया ।
    मजदूरों को मैनें हड्ताल करने की सलाह दी । उन्हें हड्ताल की शर्तें समझाईं । वे थीं –
       1: किसी भी दशा मे शान्ति का भंग कदापि न करें ।
       2: जो काम पर जाना चाहे उस पर जोर-जबरदस्ती ना करें ।
       3: मज़दूर भीख पर ना जिएँ ।
       4: हडताल चाहे जितने दिन चले वे दृढ़ रहें और अपने पास पैसा न रह जाये तो दूसरी मज़दूरी करके खाने भर को कमा लें ।”
    गाँधी ने अपनी रहनुमाई की यह कीमत वसूल की कि मज़दूरों के हाथ पैर बाँध दिये । ज़ब ग़ाँधी आपना आश्रम चलाने के लिये सेठों से हजारों रूपया दान ले सकता था तो हडताल चलाने के लिये मज़दूर दूसरी मज़दूर यूनियनों से सहायता अथवा जनता से चन्दा नहीं ले सकते थे ? ग़ाँधी के अनुसार ये भीख थी ।
    ज़ब विदेशी कपडे और शराब की दुकानों पर लोगों को जबरदस्ती रोकना जायज था तो हडताल तोडने वाले पर जोर-जबरदस्ती करना जायज क़्यूँ नही था ?
    आज हम स्वतंत्र हैं, आज लोगों को पेट भरने लायक मज़दूरी नहीं मिलती तो उस गुलामी के समय पेट भरने लायक मजदूरी जब चाहो तब मिल जाती होगी, हैं ना ? वाह रे गाँधी ?
    ये सिर्फ़ एक सोचा समझा तरीका था मज़दूरों को थकाकर, हडताल विफ़ल करने का और पंच नियुक्ति का चोर दरवाजा तो खुला ही हुआ था । और यही हुआ भी, एक हफ़्ते बाद जब मजदूरों की सहनशक्ति जबाब देने लगी, गाँधी ने अपना पैंतरा बदला । मज़दूरों का श्रद्धापात्र बनने और समझौते की गुंजाइश पैदा करने के लिये उसने एक सभा में अचानक उपवास की घोषणा कर दी ।
     सत्य तो ये था कि मज़दूर भूख से बिलबिला कर पुकार उठे कि गाँधी को उपदेश देना शोभा देता है क्यूंकि हमें सभा में पहुँचने के लिये कई कई मील पैदल चल कर आना पडता है और वो मोटर पर उडे फ़िरते हैं, इधर तो हमें रोटी के सूखे टुकडे मयस्कर नहीं और उधर गाँधी जी के सामने तो ताजा फ़लों और मेवों का अम्बार लगा रहता है । ज्योंहि इसकी भनक गाँधी तक पहुँची, वह तिलमिला उठे। उसके महात्मापन को ठेस लगी ।
     अतएव उसने व्रत रहने का फ़ैसला किया, और बस तीसरे दिन ही मिल मालिकों ने पंच नियुक्त करने की बात मान ली । पंच थे उन्हीं लोगों के एक मित्र प्रोफ़ेसर और निर्णय था मिल मालिकों के ही पक्ष में । उस पंच ने जिस कटौती की सिफ़रिश की वह मिल मालिकों की प्रस्तावित कटौती से कुछ ही कम थी । और ये थी गाँधी की तथाकथित जीत, और इसी तरह की जीतों के गाँधी ने डन्के बजाये ।



                                              From : Gandhi Benaqaab By Hansraaj Rahbar

Tuesday, May 10, 2011

Nathuram Godse's last speech in court: Parts



These are few parts of that speech given by of Nathuran Godse in the court:

          “All my readings and thinking led me to believe it was my first duty to serve Hinduism and Hindus both as a patriot and as a world citizen. To secure the freedom and to safeguard the just interests of some thirty crores (300 million) of Hindus would automatically constitute the freedom and the well being of all India, one fifth of human race. This conviction led me naturally to devote myself to the Hindu Sanghtanist ideology and program, which alone, I came to believe, could win and preserve the national independence of Hindustan, my Motherland, and enable her to render true service to humanity as well.

Nathuram Godse
           Since the year 1920, that is, after the demise of Lokamanya Tilak, Gandhiji’s influence in the Congress first increased and then became supreme. His activities for public awakening were phenomenal in their intensity and were reinforced by the slogan of truth and non-violence, which he paraded ostentatiously before the country. No sensible or enlightened person could object to those slogans. In fact there is nothing new or original in them. They are implicit in every constitutional public movement. But it is nothing but a mere dream if you imagine that the bulk of mankind is, or can ever become, capable of scrupulous adherence to these lofty principles in its normal life from day to day. In fact, honor, duty and love of one’s own kith and kin and country might often compel us to disregard non-violence and to use force. I could never conceive that an armed resistance to an aggression is unjust. I would consider it a religious and moral duty to resist and, if possible, to overpower such an enemy by use of force. [In the Ramayana] Rama killed Ravana in a tumultuous fight and relieved Sita. [In the Mahabharata], Krishna killed Kansa to end his wickedness; and Arjuna had to fight and slay quite a number of his friends and relations including the revered Bhishma because the latter was on the side of the aggressor. It is my firm belief that in dubbing Rama, Krishna and Arjuna as guilty of violence, the Mahatma betrayed a total ignorance of the springs of human action.

            In more recent history, it was the heroic fight put up by Chhatrapati Shivaji that first checked and eventually destroyed the Muslim tyranny in India. It was absolutely essentially for Shivaji to overpower and kill an aggressive Afzal Khan, failing which he would have lost his own life. In condemning history’s towering warriors like Shivaji, Rana Pratap and Guru Gobind Singh as misguided patriots, Gandhiji has merely exposed his self-conceit. He was, paradoxical, as it may appear a violent pacifist who brought untold calamities on the country in the name of truth and non-violence, while Rana Pratap, Shivaji and the Guru will remain enshrined in the hearts of their countrymen forever for the freedom they brought to them.

             The accumulating provocation of thirty-two years, culminating in his last pro-Muslim fast, at last goaded me to the conclusion that the existence of Gandhi should be brought to an end immediately. Gandhi had done very well in South Africa to uphold the rights and well being of the Indian community there. But when he finally returned to India he developed a subjective mentality under which he alone was to be the final judge of what was right or wrong. If the country wanted his leadership, it had to accept his infallibility; if it did not, he would stand aloof from the Congress and carry on his own way. Against such an attitude there can be no halfway house. Either Congress had to surrender its will to his and had to be content with playing second fiddle to all his eccentricity, whimsicality, metaphysics and primitive vision, or it had to carry on without him. He alone was the Judge of everyone and everything; he was the master brain guiding the civil disobedience movement; no other could know the technique of that movement. He alone knew when to begin and when to withdraw it. The movement might succeed or fail, it might bring untold disaster and political reverses but that could make no difference to the Mahatma’s infallibility. ‘A Satyagrahi can never fail’ was his formula for declaring his own infallibility and nobody except himself knew what a Satyagrahi is.

            The Congress, which had boasted of its nationalism and socialism, secretly accepted Pakistan literally at the point of the bayonet and abjectly surrendered to Jinnah. India was vivisected and one-third of the Indian Territory became foreign land to us from August 15, 1947. This is what Gandhi had achieved after thirty years of undisputed dictatorship and this is what Congress party calls ‘freedom’ and ‘peaceful transfer of power’. The Hindu-Muslim unity bubble was finally burst and a theocratic state was established with the consent of Nehru and his crowd and they have called ‘freedom won by them with sacrifice’ – whose sacrifice? When top leaders of Congress, with the consent of Gandhi, divided and tore the country – which we consider a deity of worship – my mind was filled with direful anger.

            One of the conditions imposed by Gandhi for his breaking of the fast unto death related to the mosques in Delhi occupied by the Hindu refugees. But when Hindus in Pakistan were subjected to violent attacks he did not so much as utter a single word to protest and censure the Pakistan Government or the Muslims concerned. Gandhi was shrewd enough to know that while undertaking a fast unto death, had he imposed for its break some condition on the Muslims in Pakistan, there would have been found hardly any Muslims who could have shown some grief if the fast had ended in his death. It was for this reason that he purposely avoided imposing any condition on the Muslims. He was fully aware of from the experience that Jinnah was not at all perturbed or influenced by his fast and the Muslim League hardly attached any value to the inner voice of Gandhi.

             Gandhi is being referred to as the Father of the Nation. But if that is so, he had failed his paternal duty inasmuch as he has acted very treacherously to the nation by his consenting to the partitioning of it. I stoutly maintain that Gandhi has failed in his duty. He has proved to be the Father of Pakistan. His inner-voice, his spiritual power and his doctrine of non-violence of which so much is made of, all crumbled before Jinnah’s iron will and proved to be powerless.

             I do say that my shots were fired at the person whose policy and action had brought rack and ruin and destruction to millions of Hindus. There was no legal machinery by which such an offender could be brought to book and for this reason I fired those fatal shots.

             I now stand before the court to accept the full share of my responsibility for what I have done and the judge would, of course, pass against me such orders of sentence as may be considered proper. But I would like to add that I do not desire any mercy to be shown to me, nor do I wish that anyone else should beg for mercy on my behalf. My confidence about the moral side of my action has not been shaken even by the criticism leveled against it on all sides. I have no doubt that honest writers of history will weigh my act and find the true value thereof some day in future.”

- NATHURAM GODSE

       You can find complete speech in the following blog: http://d-indians.blogspot.com/2011/04/nathuram-godses-last-speech-in-court.html

लिखिए अपनी भाषा में