अहमदाबाद के एक मजदूरसंघ ने गाँधी को मजदूरों की रहनुमाई के लिये बुलाया । गाँधी ने स्वं अपनी अत्मकथा मे लिखा है : “मेरी स्थिति बहुत ही नाजुक थी । मजदूरों का पक्ष मुझे मजबूत जान पडा । मिल मालिकों से मेरा सम्बन्ध प्रेम का था । उनके साथ बातचीत करके मजदूरों की माँग के बारे में पंच चुनने की प्रार्थना की । पर मालिकों ने अपने और मजदूरों के बीच में पंच के बिचवई बनने का औचित्य स्वीकार नहीं किया ।
मजदूरों को मैनें हड्ताल करने की सलाह दी । उन्हें हड्ताल की शर्तें समझाईं । वे थीं –
1: किसी भी दशा मे शान्ति का भंग कदापि न करें ।
2: जो काम पर जाना चाहे उस पर जोर-जबरदस्ती ना करें ।
3: मज़दूर भीख पर ना जिएँ ।
4: हडताल चाहे जितने दिन चले वे दृढ़ रहें और अपने पास पैसा न रह जाये तो दूसरी मज़दूरी करके खाने भर को कमा लें ।”
गाँधी ने अपनी रहनुमाई की यह कीमत वसूल की कि मज़दूरों के हाथ पैर बाँध दिये । ज़ब ग़ाँधी आपना आश्रम चलाने के लिये सेठों से हजारों रूपया दान ले सकता था तो हडताल चलाने के लिये मज़दूर दूसरी मज़दूर यूनियनों से सहायता अथवा जनता से चन्दा नहीं ले सकते थे ? ग़ाँधी के अनुसार ये भीख थी ।
ज़ब विदेशी कपडे और शराब की दुकानों पर लोगों को जबरदस्ती रोकना जायज था तो हडताल तोडने वाले पर जोर-जबरदस्ती करना जायज क़्यूँ नही था ?
आज हम स्वतंत्र हैं, आज लोगों को पेट भरने लायक मज़दूरी नहीं मिलती तो उस गुलामी के समय पेट भरने लायक मजदूरी जब चाहो तब मिल जाती होगी, हैं ना ? वाह रे गाँधी ?
ये सिर्फ़ एक सोचा समझा तरीका था मज़दूरों को थकाकर, हडताल विफ़ल करने का और पंच नियुक्ति का चोर दरवाजा तो खुला ही हुआ था । और यही हुआ भी, एक हफ़्ते बाद जब मजदूरों की सहनशक्ति जबाब देने लगी, गाँधी ने अपना पैंतरा बदला । मज़दूरों का श्रद्धापात्र बनने और समझौते की गुंजाइश पैदा करने के लिये उसने एक सभा में अचानक उपवास की घोषणा कर दी ।
सत्य तो ये था कि मज़दूर भूख से बिलबिला कर पुकार उठे कि गाँधी को उपदेश देना शोभा देता है क्यूंकि हमें सभा में पहुँचने के लिये कई कई मील पैदल चल कर आना पडता है और वो मोटर पर उडे फ़िरते हैं, इधर तो हमें रोटी के सूखे टुकडे मयस्कर नहीं और उधर गाँधी जी के सामने तो ताजा फ़लों और मेवों का अम्बार लगा रहता है । ज्योंहि इसकी भनक गाँधी तक पहुँची, वह तिलमिला उठे। उसके महात्मापन को ठेस लगी ।
अतएव उसने व्रत रहने का फ़ैसला किया, और बस तीसरे दिन ही मिल मालिकों ने पंच नियुक्त करने की बात मान ली । पंच थे उन्हीं लोगों के एक मित्र प्रोफ़ेसर और निर्णय था मिल मालिकों के ही पक्ष में । उस पंच ने जिस कटौती की सिफ़रिश की वह मिल मालिकों की प्रस्तावित कटौती से कुछ ही कम थी । और ये थी गाँधी की तथाकथित जीत, और इसी तरह की जीतों के गाँधी ने डन्के बजाये ।
From : Gandhi Benaqaab By Hansraaj Rahbar
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