1917 में ब्रिटेन की हालत बडी नाजुक थी । वह अमरीका को युद्ध में लाने में सफ़ल नहीं हो पाया था । हिन्दुस्तान से और अधिक सहायता भिजवाने के लिये वायसराय ने दिल्ली में युद्ध-परिषद बुलाने की सोची । गाँधी परिषद मे शरीक हुया जबकि उस समय देश के सर्वाधिक प्रभाबशाली नेता लोकमान्य तिलक, एनीबेसेंट और अली भाइयों (मुहम्मद अली, शौकत अली) को निमन्त्रित नही किया गया था ।
परिषद मे गाँधी ने अपना भाषण हिन्दी मे दिया और अंग्रेजी मे एक वाक्य बोलकर युद्ध प्रस्ताव का समर्थन किया । गाँधी ने क्या कहा, इस बात को तो भुला दिया गया लेकिन वह हिन्दी में बोला इसे बडी बहादुरी माना गया और अखबारों में इसकी बडी चर्चा हुयी ।
गाँधी ने वायसराय को बाद में एक पत्र लिखा, जिसमें था –
“मेरे वश की बात होती तो मैं ऐसे मौके पर होमरूल वगैरा का नाम तक ना लेता बल्कि साम्राज्य के इस आडे वक्त में सारे शक्तिशाली हिन्दुस्तानियों को उसकी रक्षा में चुपचाप बलिदान हो जाने को प्रेरित करता … ”
इसके बाद प्रान्तीय राज्य सरकारों ने प्रान्तीय युद्ध परिषदें नियोजित करना शुरू कीं । बम्बई की सरकार ने केन्द्र की हिदायत पर गाँधी के अलावा तिलक और दूसरे राजनीतिज्ञों को भी निमन्त्रित किया गया ।
दूसरे दिन बम्बई टाउनहाल मे में अधिबेशन शुरू हुआ । गवर्नर ने नियमपूर्वक कल्याणकारी व्रिटिश साम्राज्य का गुणगान किया । इसके बाद सहायता सम्बन्धी मुख्य प्रस्ताव सामने आया । तिलक अपनी जगह चुपचाप खडे हुए और उन्होंने गवर्नर से एक संशोधन पेश करने की इजाजत चाही जिसका आशय यह था कि सहायता तभी दी जा सकती है जब सरकार देशवाशियों को स्वशासन का अधिकार दे दे ।
गवर्नर ने संशोधन पेश करने की इजाजत नहीं दी ।
तिलक और देश के सभी बडे नेता बडे स्वाभिमान के साथ परिषद का बायकाट करके बाहर निकल आये ।
ग़ाँधी मंच के एक कोने पर चुपचाप और स्थिर बैठा रहा । और गाँधी ने अपने इस कयरतापूर्ण कृत्य का अपनी आत्मकथा में कहीं उल्लेख तक नहीं किया ।
अब रंगरूट भर्ती का काम शुरू हुआ । गाँधी ने एक महान ब्रिटिश राज्यभक्त की तरह यह काम बडे मनोयोग से शुरू किया । गाँधी ने खुद लिखा है –
“मेरी दूसरी जिम्मेदारी रंगरूट भर्ती करने की थी ।”
अब उसने अपने अहिंषा के शिद्धान्त को ताक पर रखकर तर्क वितर्क करके लोगो को शस्त्र धारण करने का उपदेश देना शुरु किया । उसने यह दलील दी कि –
“ब्रिटिश साम्राज्य हमें शत्रुओं के आक्रमण से बचाने का प्रयत्न करता है तो ऐसे नाजुक समय में हमारा भी कर्तव्य होना चाहिये कि साम्राज्य की रक्षा के लिये अपने रक्त का अंतिम बिन्दु भी बहाने से संकोच ना करें ।”(गाँधीजी पृ 40)
सूरत मे उसने तिलक के विचारों से असहमत होकर, अंग्रेजो की सहायता के पक्ष मे एक भाषण दिया । उस भाषण की जो रिपोर्ट एक अखबार में छ्पी, गाँधी ने एक पत्र उसके बारे मे लिखा था और शिकायत की थी कि –
“आपके सम्वाददाता ने साम्राज्य को सहायता देने की बात को मेरे भाषण की मुख्य बात कह दिया … ।”
यानी अब सहायता की बात सीधे ढंग से कहने में भी शर्म आती थी; इसलिये यह सत्यवादी तथाकथित ‘महात्मा’ उसे सौ तरह से घुमा फ़िराकर कहता था ।
यह तो बस एक झलक थी गाँधी के अंग्रेज प्रेम की ।
From : Gandhi Benaqaab By Hansraaj Rahbar