Wednesday, November 30, 2016

तथाकथित महात्मा के इस देश पर उपकार: तुष्टीकरण की शुरुआत



5 मार्च, 1931 को इर्विन के साथ अपने समझौते के क्षण से ही गांधी जी मुस्लिम प्रश्न का हल खोजने में जुट गये थे। उन दिनों बनारसकानपुरमिर्जापुर आदि अनेक नगरों में भयानक हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। कानपुर के मुसलमानों ने भगत सिंह की फांसी के विरोध में प्रदर्शन में शामिल होने से मना कर दियाजिससे दंगा भड़क उठा। हिन्दू मुस्लिम एकता के बड़े प्रचारक और कांग्रेस के अध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी की एक मुस्लिम मुहल्ले में हत्या कर दी गयी। इस प्रक्षोभक वातावरण में गांधी जी की प्रेरणा से कराची के कांग्रेस अधिवेशन के अंत में 1 अप्रैल को कराची में ही जमीयत उल उलेमा का अधिवेशन रखा गयाजिसमें गांधी जी ने कानपुर के दंगों के लिए हिन्दुओं को दोषी ठहरायाउसके लिए शर्मिंदगी प्रगट कीउनकी ओर से मुसलमानों से क्षमायाचना कीउलेमा से मुस्लिम समस्या को हल करने की प्रार्थना की गई। महादेव देसाई ने अपनी डायरी के 12वें खंड में गांधी जी के उस भाषण को विस्तार से दिया है। गांधी जी ने कहा, 'इस बारे में मैं उलेमा की कदमबोसी (चरण चूमकर) करके उनकी मदद चाहता हूं। अगर हम इसमें कामयाब नहीं हुए तो गोलमेज सम्मेलन में जाना लगभग बेकार-सा होगा। मैं नहीं चाहता कि यह हुकूमत पंच बनकर हमारी आपसी लड़ाई का फैसला करे। उलेमा से मैं नम्रता से कहूंगा कि वे इस बारे में बहुत कुछ मदद कर सकते हैं। कांग्रेस और हिन्दू की हैसियत से मैं कहता हूं कि मुसलमान जो चाहेंमैं देने को तैयार हूं। मैं बनियापन नहीं करना चाहता हूं कि आप जिस चीज की ख्वाहिश करते होंउसे एक कोरे कागज पर लिख दीजिए और मैं उसे कबूल कर लूंगा। जवाहर लाल ने भी जेल से यही बात कही थी।

वाह रे इंसाफवाह रे तुष्टीकरणगलत को गलत न कहना कायरता नहीं तो क्या हैनिरपराध को दोषी बताना स्वयम में एक अपराध नहीं तो क्या है? ... वाह रे गांधीत्ववाह रे महात्म्यवाह रे देश भक्त।

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